मैक्स हॉस्पिटल, पटपड़गंज, नई दिल्ली ने ग्वालियर में हड्डी के कैंसर के लिए अपनी ओपीडी सेवा शुरू की
सब केटगॉरी : स्वास्थ्य
Apr,09,2021 01:35:38 PM
ग्वालियर, 11 मार्च 2021: बोन कैंसर की शुरुआती चरण में पहचान के लिए कई तरह के गंभीर लक्षणों पर गौर करना पड़ता है लेकिन डायग्नोसिस नहीं कराने या गलत डायग्नोसिस के कारण ज्यादातर मरीजों की स्थिति बिगड़ती चली जाती है। लोगों में जागरूकता बढ़ाने और आर्थोपेडिक आॅन्कोलॉजी की आधुनिक उपचार पद्धति के बारे में बताने के लिए मैक्स सुपर स्पेशियल्टी हॉस्पिटल पटपड़गंज, नई दिल्ली ने आज एक परिचर्चा सत्र आयोजित किया।
इस सत्र का मुख्य उद्देश्य जागरूकता बढ़ाने के अलावा मासिक ओपीडी खुलने के बारे में घोषणा करना था जो अब ग्वालियर के श्री डायग्नोस्टिक सेंटर स्थित मैक्स पेशेंट असिस्टेंस सेंटर में चलाया जाएगा। इस ओपीडी में मैक्स हॉस्पिटल, पटपड़गंज, नई दिल्ली के डॉ. विवेक वर्मा रहेंगे। उन्होंने इस मौके पर ग्वालियर में हाल में बोन कैंसर के कुछ दिलचस्प मामलों का जिक्र किया जिनका सफलतापूर्वक इलाज किया गया।
मैक्स हॉस्पिटल में आर्थोपेडिक आॅन्कोलॉजी के सीनियर कंसल्टेंट और प्रमुख डॉ. विवेक वर्मा ने कहा, 'आॅर्थोपेडिक आॅन्कोलॉजी विभाग के तहत हड्डी और सॉफ्ट टिश्यू कैंसर का इलाज किया जाता है। हालांकि इस तरह के कैंसर के मामले बहुत कम ही होते हैं लेकिन ये बहुत खतरनाक होते हैं। कई बार तो बोन और सॉफ्ट टिश्यू कैंसर सेवा केंद्र पर किसी विशेषज्ञ द्वारा अगर सही इलाज नहीं हो पाता है तो मरीज का अंग भी काटना पड़ जाता है। पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में कई तरक्की हुई है जिससे हम बोन कैंसर के 90 फीसदी से अधिक मामलों में अंगों को बचाते हुए सफल सर्जरी करने में सक्षम हुए हैं। आधुनिक उपचार पद्धतियों का परिणाम ही बेहतर आने लगा है और इस तरह के कैंसर के इलाज में सफल होने का रास्ता खुला है।'
इस बीमारी के बारे में लोगों को जानकारी का अभाव और संक्रमण के साथ लक्षणों की समानता और हडि् डयों में सूजन या अन्य चिकित्सा स्थितियां जैसे कारक देरी से डायग्नोसिस होने की वजह बनते हैं और इस वजह से प्रभावी उपचार नहीं हो पाता है।
ग्वालियर के मरीज संदीप साहनी (बदला हुआ नाम) को कूल्हे में बड़ा ट्यूमर निकला था और शुरू में वह दिल्ली के सरकारी कैंसर सेंटर में इलाज करा रहे थे। लेकिन ट्यूमर लगातर बढ़ते रहने के कारण उनकी सर्जरी कई बार टालनी पड़ी। मरीज की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए परिवारवालों ने दूसरे डॉक्टर से सलाह लेने का फैसला किया और डॉ. विवेक वर्मा से मिले।
डॉ. वर्मा बताते हैं,'मरीज के कूल्हे में पनपा ट्यूमर बढ़ते हुए पसलियों तक पहुंच गया था। ट्यूमर की बाधा के कारण किडनी भी बढ़ गई थी और उसकी टांगों को बचाना चुनौतीपूर्ण हो गया था। ट्यूमर निकालने के लिए जब अंग काटना अंतिम उपाय रह गया था तब हमारी टीम ने उसे खास दवाइयों पर रखने का फैसला किया जिससे ट्यूमर का आकार सिकुड़ने में मदद मिली और ट्यूमर तक रक्त प्रवाह भी कम हो गया। सटीक तरीके से ट्यूमर निकालने के लिए उसके कूल्हे का विशेष 3—डी मॉडल डिजाइन किया गया और साथ ही उसके कूल्हे के जोड़ की गतिविधि भी बरकरार रखी गई। पूरी तरह रिकवर हो जाने के बाद मरीज का न सिर्फ अंग बचा लिया गया बल्कि अब दो साल बाद वह रोगमुक्त भी हो गया है तथा सामान्य पारिवारिक और प्रोफेशनल जीवन जीने लगा है।'
इसी तरह एक और मरीज कमला गर्ग (नाम परिवर्तित) को पिछले छह महीने से कलाई में लगातार दर्द था और जांच कराने पर कलाई के पास एनेयूरिस्मल बोन सिस्ट (एबीसी) की डायग्नोसिस हुई। कई डॉक्टरों और विशेषज्ञों तक भाग—दौड़ करते हुए उन्हें कई तरह की सर्जरी की सलाह दी गई। तंग आकर जब वह मैक्स हॉस्पिटल, पटपड़गंज के डॉ. विवेक वर्मा के पास आई तो उन्हें नई तरह की मिनिमली इनवेसिव टांकारहित सर्जरी कराने को कहा गया। पहले इस तरह के जख्मों में ओपन सर्जरीी होती थी लेकिन बीमारी की बायोलॉजी को समझते हुए इस तरह के ट्यूमर का इलाज परक्यूटेनियस स्कलेरोथेरापी जैसी आधुनिक पद्धतियों से किया जाने लगा है। इसमें ट्यूमर वाले हिस्से में फ्लूरोस्कोपिक मशीन के सहारे छोटी सुई डाली जाती है ताकि चीरा लगाए बिना अंदर बनी कैविटी को साफ किया जा सके। इसके बाद ट्यूमर सेल को खत्म करने और तेजी से सुधार लाने के लिए स्कलेरोसेंट नामक विशेष रसासन का इंजेक्शन लगाया जाता है। यह सब प्रक्रिया पूरी करने के बाद मरीज अच्छी महसूस कर रही हैं और दर्द से मुक्त हैं और उसे अब बोन ग्राफ्ट की जरूरत भी नहीं रह गई है।'
लक्षणों की शुरुआती पहचान से बोन कैंसर के 70 फीसदी तक के मरीजों को बचा लेने में मदद मिली है लेकिन कई बार बोन कैंसर के प्रकार और चरण के आधार पर भी उपचार पद्धति का सही चयन करना भी महत्वपूर्ण होता है। बोन कैंसर का इलाज की सफलता उसके चरण पर ही निर्भर करती है, प्रत्येक मरीज का विशेषज्ञ डॉक्टरों की बहुविभागीय टीम द्वारा मूल्यांकन किया जाता है। शुरुआती मूल्यांकन के बाद से ही जितनी जल्दी हो सके, पहले दिन से इलाज की योजना शुरू कर दी जाती है। इस सर्जिकल प्रक्रिया में ट्यूमर पूरी तरह निकाल लिया जाता है जबकि मरीज का अंग भी सुरक्षित रह जाता है। अंग निकालने की नौबत महज एक फीसदी मरीजों में ही आती है जो शायद ही कभी होता है।